अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Monday, November 15, 2010

'आशियाँ-ए-सुकूं'

" हम 'चाँद' भी खंगाल चुके
'आशियाँ-ए-सुकूं'  की चाहत में....
बेशक वहां 'अमन- ओ-चैन'  बाबस्ता है,
पर तभी तलक जब तलक के .
इन्सां के कदम वहां नहीं हैं  पड़े "

2 comments:

  1. सरोज जी,

    सच है ये इन्सान तो वहाँ भी ग़दर कर देगा....

    बाबस्ता की जगह बावस्ता होना चाहिए मेरी नज़र में....

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