अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Monday, January 7, 2013

"औरत-देह और ज़ोर-जबरदस्ती"

शहरों की तड़क भड़क
नौकरी ,पैसा
बच्चों की पढाई
की चाह में .....
किसानी छोड़
बड़े शहर में
हर साल
जाने कितने परिवार
बड़े शहर आते हैं
दायरा शहर का
बे हिसाब बढ़ता जाता है
जितने मकान बढते हैं
कमरे उतने ही सिमटते जाते हैं
एक दडबा और पूरा परिवार
पर रहने को लाचार
बच्चों को अब
आजी,बाबा,काका काकी
की कहानियां सुनने को नहीं मिलती
संस्कारों,संबंधो के स्नेह को
वो जी भर जी भी नहीं पाते
आधी रात उनकी नींद खुल जाती है
बाप के नशे में धुत हुंकार से
और ................
थकी हुई माँ की सिसकी और कराहों से
अबोध मन समझ नहीं पाता
पर रोज वही सब देखतें है
उनका बचपना जवान नहीं हो पाता 
पर बचपन में वो जवान हो जातें है
अब वो कुछ बातें .......
गलत तरीके से बिलकुल सही समझतें है
औरत-देह और ज़ोर-जबरदस्ती !!
~s-roz~

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