अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Wednesday, November 27, 2013

"रिपोर्टर"

उसने देखा 
खून से लथपथ 
सड़क के बीचो-बीच 
तडफड़ाता आदमी 
और कन्नी काटते लोग 
वो कैमरा घुमाता रहा 
और बनायी उसने 
मौक़ा-ए-वारदात की 
सच्ची रिपोर्ट 
लोग देख शर्मशार थे 

उसने देखा आधी रात 
पब से निकलती 
अकेली लड़की 
और उसके इस अपराध पर 
बीच सड़क 
उसके कपड़े नोचते लोग 
और वो .....
उसके अधनंगे जिस्म पर 
कैमरा घुमाता रहा 
लाइव दिखता रहा 
लोगों को सच्ची रिपोर्ट 
जनता सकते में थी 

उसने देखा 
अनशन में 
अपनी मांग पूर्ति के वास्ते 
एक युवक को खुद पर 
मिट्टी का तेल छिड़कते 
फिर आग लगाते 
भीड़ देखती रही 
वो तस्वीर लेता रहा 
इस रिपोर्ट पर 
लोगों में ...
आग भड़क चुकी थी 

उसने देखे 
सुनामी, भूकंप 
दंगे-फसाद 
अँधेरगर्दी, अनाचार
और तैयार की 
जाने कितनी ही ख़बरें 
आला दर्जे का वो रिपोर्टर 
अनगिन पुरस्कारों से नवाज़ा गया 
उसने रिपोर्टर होने का फ़र्ज़ निभाया 
बाक़ीयों को ..............
आदमी होने का फ़र्ज़ निभाना था !!
~s-roz~

Tuesday, November 26, 2013

"इज्ज़त का पैमाना "


कल हवस के भूखों ने
जिस्म छलनी किया 
कपड़े तार-तार किये 
आज के अख़बार में 
ख़बर ये थी 
"इक मासूम की इज्ज़त-ओ-आबरू तार-तार हुई" 
लानत है ख़बर वालो पर 
जिन्हें ये इल्म ही नहीं कि 

इज्ज़त वज़ूद की होती है 
जिस्म की नहीं ...!!!!


हमारी ज़ात की औक़ात पर इस तरह की सोच बदनुमा धब्बा है 
जिसे मिटाना हरहाल जरुरी है .......! सबसे बड़ा सवाल ये है "कि हमारे समाज में इज्ज़त के पैमाने अलग-अलग क्यूँ ??? किसी मर्द के जिस्मानी अंगों पर चोट हो या शोषण हो तो उसे घायल या पीड़ित कहेंगे ..फिर किसी औरत के साथ यही हो तो उसकी इज्ज़त कैसे चली जाती है ??? ये कोई समझाए मुझे ..! इसके लिए सबसे बड़े दोषी मीडिया वाले तो हैं ही जो चीख चीख कर यही डायलाग दुहराते रहते हैं !! साथ हमारी संकीर्ण सोच भी दोषी है ....
जिस दिन यह सोच हमारे ज़ेहन से चली जायेगी उस दिन पीड़िता समाज से मुहं नहीं छिपाएगी और ढके छिपे अपराध भी खुलकर बाहर आ सकेंगे ....! 
वगरना तो ................


सी कर होठों को
कानों पे बिठा के पहरे 
खुद को.....
किसी आहनी ताबूत में रख दें
कि हमें ..............
इज्ज़त से ज़िंदगी करने की 
क़ीमत भी चुकानी है यहाँ............!

~s-roz~

Thursday, November 21, 2013

"बिवाइयां "

बचपन के जाड़ों में 
मुझे याद आता है 
जब माँ की एड़ियां 
फटने लगती ....
उनपर वो लगातीं थी 
मधु के छत्ते का मोम
और हमारी एड़ियों को 
वो जुराबों में महफूज़ कर देती !

अब जो देखती हूँ 
कंक्रीट से रूखी होती सतह 
और अज़ल से रौंदी गयी 
ज़मीं की फट रही बिवाइयों को 
तो जी करता है 
दरिया के तह से 
खुरच लाऊं .....
उर्वर माटी का मोम 
और भर दूँ उन ज़ख्मो पर 
ताकि उसके रोमकूपों से 
सांस ले सके 
नन्हे-नन्हे बिरवे !

माना के मेरा यह ख़याल 
चींटी की चीनी के दाने भर सा है 
पर यह इल्म भी है 
कि चीटियाँ...... 
अकेली नहीं चलती 
क़तारों में वो चाहे तो 
चीनी का ढेर लगा सकती है 
फिर हम अपनी माँ की 
फटी बिवाइयों को 
क्यूँ नहीं भर सकते ?

डरती हूँ उस दिन के लिए 
जब खेतों की जगह 
रह जाएगा शेष
सिर्फ रेत ही रेत 
और "पृथ्वी" ....
घायल ऊंटनी सी 
दौड़ेगी मरुथल-मरुथल 
और हम उसका पेट काट 
पी रहे होंगे जल !!!!

~s-roz~

Monday, November 18, 2013

पता नइखे /भोजपुरी गज़ल



कहीं भगवान के पता नइखे 
कहीं इंसान के पता नइखे 

सगरो अन्हियार बढल बा 
सुरुज-बान के पता नइखे 

पोथी पढ़ पंडित बन गईले
जिए-भर ग्यान के पता नइखे 


जे उगवलस खेत में सोना 
ओकरे धन-धान के पता नइखे 

कबले होई आस के अंजोर 
ऊ बिहान के पता नइखे 

इहाँ मुर्दा बनल सब अदमी 
अब समसान के पता नइखे 

बदलत बा इंसान के फितरत 
कहीं ईमान के पता नइखे 

जेहमे कब्बो करज न उगे 
ऊ सिवान के पता नइखे 

~s-roz~

अन्हियार=अँधेरा 
ग्यान=ज्ञान
उगवलस=उगाया 
बिहान=दिन 
समसान =श्मशान 
सिवान=खेत 




Saturday, November 16, 2013

"ग़ज़ल "शोर करते थे परिंदे


बग़ैर मोड़ हमसफ़र, मुड़ गए तो क्या हुआ 
ग़ैर क़ाफ़िलों से तुम, जुड़ गए तो क्या हुआ

कोई आहट भी नहीं, कोई दस्तक़ भी नहीं 
भीड़ में अना के बिछुड़ गए तो क्या हुआ 

कट गया गली का वो आखिरी दरख़्त भी 
शोर करते थे परिंदे, उड़ गए तो क्या हुआ 

बीती शब्, तेरे शक-ओ-शुबा की आंधी में
रिश्तों के सफ़हे, मुड़-तुड़ गए तो क्या हुआ 

धुंध ने चुरा लियें हैं रंग-ओ-चमक धूप के 
ठंड से दिन ये, सिकुड़ गए तो क्या हुआ

भरा रहे दरिया प्रेम का, 'रोज़' इसके वास्ते 
रेत साहिल के सारे निचुड़ गए तो क्या हुआ
!
~s-roz~

Tuesday, November 12, 2013

"तुम तो आकाश हो"


नेह के नीले एकांत में 
क्षितिज की सुनहरी पगडंडी पर 
चलते हुए.....
तुम्हारे होने या ना होने को 
सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच 
कभी विभक्त नहीं कर पायी मैं !

जाने कब से 
धरती पर चलती आ रही मैं 
इस ज्ञान से परे, कि
तुम अपनी छ्त्रछाया में 
संरक्षित करते आये हो मुझे !

अपनी थाली में परोसते रहे 
मन भर अपनापन 
ना होते हुए भी तुम्हारे होने का 
आभास् होता रहा मुझे !

ऋतुएँ संबंधों पर भी 
अपना असर दिखाती है शायद 
चटकती बिजली ने 
तुम्हारे सिवन को उधेड़ते हुए 
जो दरार डाली है 
तुम्हारी श्वेत दृष्टि अब श्यामल हो उठी है !

या तुम बहुत पास हो 
या कि बहुत दूर
पर वहां नहीं हो जहाँ मैं हूँ 
संबंधों पर ठण्ड की आमद से 
सूरज भी अधिक देर तक नहीं टिकता !

ऐसे अँधेरे से घबराकर मैं 
स्मृतियों की राख में दबी 
चिंगारियों को उँगलियों से 
अलग कर रही हूँ 
किन्तु उससे रौशनी नहीं होती 
बल्कि उंगलियाँ जलतीं है !

तुम्हे दस्तक देना चाहती हूँ 
पर तुम तो आकाश हो ना 
कोई पट-द्वार नहीं तुम्हारा 
बोलो....तो कहाँ दस्तक दूँ ?
जो तुम सुन पाओ !!! 

~s-roz~