अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Saturday, December 7, 2013

"ग़ज़ल"

जितना कम सामां
सफ़र उतना आसां

मुझे अब याद आई 
बुजुर्गों की वो ज़बां

निकले थे सफ़र में 
लेकर ढेरों अरमां 

दोनों हथेलियों में 

भरकर दौलते जहां 

रस्ते में मज़लूम थे 
बच्चे बूढ़े औ जवां

खोली न मुट्ठी कभी 
सफ़र के दरमियां

गैरत से दामनकशां 
हुए ना हम पशेमां

था आगे सफ़र में 
बियाबां ही बियाबां

दूर तलक़ जंगल में 
ना मकीं थे न मकां

आगे देखा ज़बल जब 
तब हुए हम परीशां

बिना सहारे चढ़ना 
क़तई न था आसां

चलना ज़िन्दगी थी 
रुकना ख़तरा-ए-जां 

खोल दी हथेलियां 
दौलत हुआ जियां

देने को सहारा मुझे 
फैली थी शाखें वहां 

खुदा भी ले रहा था 
खुदगरज़ी की इम्तहां

ख़ाली हाथ आये थे 
ख़ाली रुख़सते-जहां

~s-roz~
मजलूम =मजबूर /पीड़ित
दामनकशां = दामन बचाते हुए 
पशेमां=लज्जित 
ज़बल=पर्वत 
मकीं =मकान में रहने वाले 
जियां=व्यर्थ 
रुख़सते-जहां=जहां से विदा होना

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