अधूरे ख्वाब


"सुनी जो मैंने आने की आहट गरीबखाना सजाया हमने "


डायरी के फाड़ दिए गए पन्नो में भी सांस ले रही होती है अधबनी कृतियाँ, फड़फडाते है कई शब्द और उपमाएं

विस्मृत नहीं हो पाती सारी स्मृतियाँ, "डायरी के फटे पन्नों पर" प्रतीक्षारत अधूरी कृतियाँ जिन्हें ब्लॉग के मध्यम से पूर्ण करने कि एक लघु चेष्टा ....

Monday, November 17, 2014

चौखट


बकईयाँ चलने से लेकर 
किशोर वय तलक ......
दरवाज़े के उसपार जाने से पहले ही 
पीछे से इक आवाज़ उभर आती 
"हां.. हां ...चौउखट संभार के "
जो चोट तब घुटने में लगती 
किशोर वय में वोही चोट 
दिल पर उभर आती

उफ़ !! वो चौखट ...
और उसे पार करने की सौ हिदायतें

फिर इसी चौखट को पराया करार कर देना 
और किसी अजनबी चौखट पर 
हिदायतों का खोइंछा बाँध 
विदा करना और यह कहना कि
"इस चौखट पर डोली उतरीं है 
अब अर्थी भी यही से उठेगी" 
चौखट के दायरे को पहाड़ बना देती

अब, माँ जब मेरी किशोर होती 
बेटी की अल्हड़ता देखती है 
तब चिंता पूर्ण स्वर में कहती है 
" बेटी, अब ये बच्ची नहीं रही
इसे अब कुछ सऊर सिखाओ 
नहीं तो कभी भी ठोकर खा जाएगी "

और मैं मुस्कुराते हुए 
माँ का हाथ हौले से दबा कर कहती हूँ ..
"माँ ! अबके घरों में चौखटें नहीं होती 
इसलिए अब वो मजे से लांघ जातीं हैं एवरेस्ट भी "
और फिर माँ की गहरी चिंता,
हलकी मुस्कान में बदल जाती है !!
~s-roz~
बकईयाँ=crawling 
खोइंछा =दुल्हन या सुहागिन को विदाई के समय शुभ-मंगल दायनी स्वरूप उनके आँचल में हल्दी,दूब.और चावल दिया जाता है !

Wednesday, November 5, 2014

बिसुखी गईया


दूध की नदी जब

शिराओं में सूखने लगती है

और थन उसके सिकुड़ने लगते हैं

तब वो बेदखल हो जाती है

अपने ही परिवार से

 

वृद्धाश्रम ...............

अभी बना नहीं है उसके वास्ते

तभी तो ......वो मनहूस सी

गली मोहल्ले भटकते हुए

चर जाती है ....कूड़े में पड़े

बासी अख़बार की 

मनहूस ख़बरों को

 

 

और फिर ....

जीवन के चौराहे पर

बैठ जुगाली करते

खो जाती है

अपने स्वर्णिम अतीत में

जहाँ उसका गाभिन होना

रम्भाना, बियाना

एक उत्सव था !

 

याद आती है उसे

वो बूढी मलकाइन

जो अब नहीं रही ....

जिसकी आँखों में

उसकी पूंछ पकड़

वैतरणी पार करने की लालसा थी

 

याद करती है

अपनी पुरखिनो को

जिसकी पीठ पर बांसुरी बजा

सांवरे ने ब्रम्हांड डुला दिया था

 

जुगाली के बंद होते ही

वर्तमान उसे ....

देह व्यापार के लिए

कत्लगाह का रास्ता दिखाता है

वो इससे भय खाए

इसके पहले ही

 

कोई खीजते हुए

उसकी पसलियों में कुहनी मार

"परे हट" कहते हुए

चौराहे से हांक देता है 

Wednesday, October 8, 2014

तेरी कहानी


रेज़ा-रेज़ा सारे हर्फ़ 
मेरे लफ़्ज़ों में .....
लफ्ज़ मानी में 
और मानी ...
तेरी कहानी में 
तब्दील हो जाते हैं
मेरा ....फिर कुछ
मेरा नहीं रह जाता !!

Saturday, October 4, 2014

ग़ज़ल


अपनी बेरुख़ी से खुद ही खफा हूँ मैं न मिल मुझसे ज़माने की हवा हूँ मैं

तुझसे न मिलने का क्यूँ हो मलालतस्सव्वुर में मिलती कई दफ़ा हूँ मैं

खरीद न पाओगे बाज़ार से अब तुमक़ीमत नहीं जिसकी वो वफ़ा हूँ मैं

गर करते हो कारोबार रिश्तों में भीक्या हासिल न नुकसान न नफ़ा हूँ मैं राह-ए-कुफ़्र से न डरा मुझको 'रोज़'ज़िन्दगी की ज़ानिब बेपरवा  हूँ मैं s-roz

Sent from Samsung Mobile

Sunday, June 22, 2014

"चीख़ "


आज हम सभी के रगों में हैं, च्यूंटीयां रेंगती 
मगर कोई ....कहीं जुम्बिश नहीं होती

ख़ामोशी है कि भीतर ही भीतर काटती है 
बेचारगी भी भीतर दीमक सी चाटती है

फिर भी, ज़ुबानों की मुंडेरों से 
आवाज़ें वापिस हलक़ में लौट जातीं हैं

इंसानों की बस्ती है या के 
ज़िंदा क़ब्रिस्तान में कब्रें दम साधे पड़ी हैं ?

जी चाहता है के ....
इस नज़्म की मिटटी से इक गुल्लक बनाऊं 
और उसमे .....

वो जो कोने में सिमटी सिसकती है
नहीं जानती यहाँ सभी के जज़्बात सोये हैं 
मैं उसकी सिसकियाँ भर लूं

वो जो दर्द से बेज़ार कराहता है 
नहीं जनता इस मक़तल में कोई मरहम नहीं रखता 
मैं उसकी कराहटें भर लूँ

वे जो कानों में फुसफुसाते हैं 
नहीं जानते यहाँ सब बहरे हैं 
मैं उनकी फुसफुसाहटें भर लूँ

उनके पेट जो भूख से ऐंठतें हैं 
नहीं जानते यहाँ पेटभरना रईसों का शौक़ है 
मैं उनकी ऐठन भर लूँ

ज़ाहिर सी बात है 
गुल्लक में ये मुख्तलिफ़ आवाज़ें मिलकर 
चीख़ में तब्दील होगी 
फिर मैं ...................
इस बस्ती के चौबारे पर 
वो गुल्लक को फोड़ूगीं
यक़ीनन इन मुर्दा जिस्मों में 
कुछ हरक़त तो होगी 
कुछ हरारत तो होगी

!! 
~s-roz~


Monday, May 19, 2014

" बागबानी "

तुमसे मिले वो कीमती पल 
लौट के ना आयेंगे कल 
ये सोच कर
मैंने उन्हें बो दिया
ख्वाब की क्यारीयों में
उन्हें संजो दिया
और तभी से ........
उन नर्म लम्स की हरारत 
इन लम्हों को सींचती है 
वो हंसी तब्बसुम 
गुंचे बन खिल उठते हैं 
वो एहसास 
उन बोये हुए 
लम्हों की उपज
बढ़ा देती है 
यक़ीन जानो...
तसव्वुर के बागान में 
बागबानी के अपने मजे हैं 

जाना ............!
हो जो कभी फुर्सत 
तो सैर को आ जाना !!
 
~s-roz~

Friday, May 16, 2014

प्रतिध्वनित स्वर

प्रतीक्षा की शिला पर 
खड़ी हो
बारम्बार 
पुकारती रही तुम्हे 
वेदना की घाटियों से 
विरह स्वर का 
लौटना 
नियति है 
किन्तु, तुम 
उन स्वरों को 
शब्दों में पिरो कर 
काव्य से .....
महाकाव्य रचते रहे 
मैं मूक होती गयी 
और तुम्हारी कवितायें 
वाचाल 
मैं अब भी अबोध सी 
खड़ी हूँ 
उसी शिला पर 
कि कभी तो 
प्रतिध्वनित स्वर 
मेरे मौन को 
मुखरित करने 
पुन: आवेंगे
!!!
~s-roz~

Saturday, May 10, 2014

"गधे "

गधे की पीठ पर 
लदी होती है 
रोड़ी , सीमेंट और ईंटें 
तल्ख़ मौसमों की मार सहते हुए 
घर की बुनियाद ढोए चलते रहते हैं 
मुफ़ीद ज़मीं तलक़
घर, तोरण, महूरत 
इससे उसका कोई वास्ता नहीं होता 
.
.

किसी अज़ीम ने कहा था 
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है "
हमने तो अब तलक़ उन्हें सिंहासन ढ़ोते ही देखा है !!

~s-roz~

Monday, April 21, 2014

नेह के नीले एकांत में

नेह के नीले एकांत में
तुम, मुझसे विमुख
किन्तु......
तुम्हारा मौन 
मेरे सन्मुख
रच देता है 
स्नेह की परिभाषा
इस नेह को निहारता सूरज 
समेट लेता है
अपनी तीक्ष्ण किरणें

और तुम .......
बादलों के कान में
धीरे से कुछ कह कर
बन जाते हो आकाश
के तभी बूंदे बरसने लगतीं हैं
और मैं मिटटी सी गल कर 
बन जाती हूँ धरती।
.
बिन मौसम बरसात की बूंदे यूँ ही नहीं बरसती ......

s-roz

Wednesday, April 16, 2014

सीधी दुनिया

काल वृक्ष की डाल पर 
लटके चमगादड़ों को 
दुनिया कभी .....
सीधी दिखे भी तो कैसे ?
सीधी दिखने के लिए 
होना जो होगा 
उन्हें भी सीधा 

~s-roz~

Wednesday, March 19, 2014

बहारें फिर भी आएँगी

पेड़-पौधों से झरते
ज़र्द पत्ते 
उम्मीद की शक्ल 
अख्तियार कर 
मेरे कानों में 
"रूमी" के लफ्ज़ गुनगुना गए 
"हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम"
(हम हरियाली की तरह बार-बार उगे हैं)

Tuesday, March 18, 2014

कुछ देर ठहरूं तो चलूँ

बेनयाज़ लहरें 
मुझको खेंचती है 
दम-बदम 
अपनी जानिब 
कहकर ये 
"हासिल करने है तुम्हे 
अभी मुक़ामात कई 
देखनी है अभी 
और भी दुनिया नई" 
पर बन गया है 
मेरे क़दमों का लंगर 
मेरा ही आशियाँ 
सोचती हूँ .....
कुछ देर ठहरूं तो चलूँ 
सोचती हूँ ....
कुछ देर और ठहरूं तो चलूँ 
~s-roz~

बेनयाज़=स्वछन्द

Friday, March 7, 2014

"महिला दिवस"

बचपन में याद है हमें साल के ३६४ दिन मार, डांट ,फटकार ,मुर्गा बनना इत्यादि जैसे प्यारे प्यारे ज़ुल्म बड़े-बड़वार हमपर कर लेते थे मगर जन्मदिन के दिन हमें खुल्ली आज़ादी होती थी उस दिन हम कुछ भी करे माफ़ होता था उसी प्रकार ..आज "महिला दिवस" है आज कम से कम मन भर मर्दों के प्रति भड़ास निकाल लिया जाय .......... मर्दों को इसमें उन्हें बुरा नहीं मानना चाहिए क्यों हैं ना ? आखिरकार आज हमारा दिन है ....तो इसी बात पर हाज़िर है एक भड़ास !!

"
चौपाल में बैठे एक वृद्ध ने 
चिंतनीय स्वर में पूछा ?
मित्रों! आजकल जो औरत और मर्द के 
समान होने का राग़ अलापा जाता है 
तो वो दिन दूर नहीं जब ....
हमेँ औरतों से हीनतर समझा जायेगा 
उनकी गुलामी से फिर 
कौन हमें मुक्ति दिलाएगा ?

उनमे से एक बुद्धिजीवी बोला 
मित्र ! इसमें डरने की क्या बात है?
एक दिन, फिर बुद्धिमान एवं जागरूक 
औरतें सामने आयेंगी 
जिस तरह जागरूक मर्दों ने 
औरतों की आजादी की लड़ाई लड़ी है 
उसी तरह ये भी हमें आजादी दिलाएंगी .

~s-roz~
बुरा न मानो महिला दिवस है  

ज़ारबंद ______महिला दिवस पर विशेष

थाने मे ...
बेंच के कोने पर 
ज़ख्म से बेज़ार 
गठरी बनी घायल लड़की
सिकुड़ी,सहमी सिसकती है
घूरती नज़रें उसके ज़ख्मों को 
और भी गहरा कर देती हैं 
उसकी माँ बौख़लाई सी 
उनके, कब, कहाँ, कितने, कैसे
जैसे सवालों का 
जवाब देती हुई, दर्ज़ करा देती है 
उन दरिंदों के ख़िलाफ़ 
ऍफ़ आई आर !

अस्पताल के ....
जनाना जनरल वार्ड में 
मुश्किल से बेड मयस्सर हुआ है 
वार्ड बॉय, नर्स और मरीज़ों में 
फुसफुसाहट जारी है 
एक के बाद एक डाक्टर 
जिस्म के ज़ख्मों का 
अपने-अपने तरीके
से जांच करता हैं 
मन का जख्म
जो बेहद गहरा है 
वो किसी को नहीं दिखता 
और इस तरह 
तैयार हो जाती है 
बलात्कार की 
मेडिकल रिपोर्ट !

अदालत में ...
अभियोगी वकील बे-मुरउव्वत हो 
उससे सवाल पर सवाल दागता है 
कब, कहाँ, कितने, कैसे 
वो घबराहट और शर्म से
बेज़ुबान हो जाती है 
जवाब आंसुओं में मिलता है 
उसका वकील 
उसके आँसू पोंछते हुए कहता है 
जनाब-ए-आली ये सवाल ग़ैर-ज़रूरी है 
अदालत वकील पर एतराज़ कर 
उसके आँसू खारिज़ कर देता है 
आँसू रिकॉर्ड-रूम में चले जाते हैं 
हर पेशी तक उसकी माँ 
उम्मीद का एक शॉल बुन लेती है  
और अदालत बर्ख़ास्त होने तलक़
वो तार-तार उधड़ जाता है 

अब वो .......
खाक़ी, सफ़ेद, और काले रंग से 
बेहद ख़ाहिफ़ है 
विभिन्न कोणों के पैमाने  पर 
उन रंगों ने उसे, लड़की से 
ज्यामिति बना दिया 
जिसे केवल ...
जांचा, नापा, परखा जा सकता है 
उसे अब लड़की बनने नहीं देता
उस भयावह घटना को 
वो वक़्त की खिड़की से 
परे ढकेल देना चाहती है 
पर समाज और हालात 
उसे भूलने नहीं देते !

अब वो स्कूल नहीं जाती 
मां के सिवा किसी को भी 
याद नहीं उसका नाम 
पीड़िता,रेप वाली लड़की, विक्टिम 
कई नाम दे दिए गए है उसे 
माँ अब लोगों के घरों में 
काम करने नहीं जाती 
अब वो घर में ही 
सिलती है, औरतों के पेटीकोट 
और बगल में बैठी वो 
डालती जाती है 
उन पेटीकोटों में ज़ारबंद 
और दांत भींच कर 
कस कर लगा देती है उनमे गांठ 
जैसे कोई जल्दी खोल ही न पाए !

वक़त उनके लिए थम सा गया है 
बस दीवार पर 
टंगी केलेंडर की तारीख़ बदलती है 
बावजूद इसके 
माँ अब भी 
अगली पेशी के लिए 
बुन रही है 
उम्मीद की इक शॉल !!
~s-roz~

Wednesday, February 26, 2014

"वो कौन है"

वो कौन है जो 
घने अँधेरे में 
गुमसुम सा 
ख़ामोश सदा देता है 
सिलसिला लम्हों का 
सदियों सा बना देता है

वो कौन है जो 

मेरी सहमी हुई 
साँसों की रास 
थामे हुए चल रहा है
उससे मिलने को मगर 
मन मचल रहा है 

वो कौन है जो 
अपने ना होने पर भी 
अपना वजूद 
थमा देता है
हर इक अक्स पर 
नक़्श अपना जमा देता है 

जाने किस सम्त से 
हवा बह कर आई है 
मेरे कानो में फुसफुसाई है 
वो तो तेरी जाँ भी नहीं
उसके मिलने का 
इम्काँ भी नहीं

सुनकर, मेरे 
पलकों की सलीबो पर 
झूलने लगते हैं ख़्वाब
चांदनी नींद को 
लोरी गा के सुला देती है 
रातें बिस्तर पर 
कांटे उगा देती है 
और नींद .....नींद से उठकर 
मुझे सुलाने, आती नहीं 
... आती ही नहीं !

~s-roz~
इम्काँ = संभावना

Monday, February 24, 2014

अल्कॉहलिक़


बोतलों में क़ैद 
वो हसीं, दिलक़श, माशुक़ा 
जब क़तरा-क़तरा 
दीवाने की हलक़ से 
ज़ेहन में उतरती है तो 
इक धड़कते जिस्म की 
खुशबु औ नर्म लम्स पाकर 
बन जाती वैम्पायर 

नशे की नुकीले दांतों से 
तिल-तिल काटती है 
उसकी सोच, उसका विश्वास 
फिर उसकी देह, फिर मांस 
कर देती है उसे अपनों से जुदा
गिरवी रख देती है उसकी हर सांस 
तहज़ीब पर लगा देती है पहरे 
उसकी तिलस्मी खूबसूरती का वो
इस क़दर दीवाना हो जाता है, के 
अपनी दुनिया, अपने लोग 
उसे ज़हालत लगने लगते है 
वो रोज़ अपनी हदें बनता है 
वो रोज़ उसकी हदें तोड़ देती है 
और जब किसी रोज़ वो 
हक़ीकत के आईने में 
उसके असली चेहरे से वाकिफ़ होता है 
तब वो चाहकर भी खुद को 
उसके चंगुल से निकल नहीं पाता
तिल-तिल उसके गलने से गलने लगते हैं उसके अपने भी .................!!

~स-रोज़~... 
" नशा शौक़ तक रहे तो बेहतर वरना ये ज़िन्दगी कब SUCK करने लगती है इसका इल्म होने तक शायद देर हो चुकी होती है "

Saturday, February 22, 2014

मन के फागुन से लाइव .....II

बसंत के आगमन से ही 
गाँवों में जो उठने लगती है 
फगुनई बयार ...
वो उठ कर 
हमारी जानिब भी आती हैं 
देने संदेशा फाग की 
मगर शहर की 

ऊँची मीनारों से टकराकर 
मायूस लौट जाती है 
कंक्रीट से घिरे हम 
नहीं सूंघ पाते 
महुवे की मीठी सुगंध ,
आम का बौराना ,
कोयल की कूक
टेसू का सूर्ख रंग 
पियारती सरसों का पीलापन 
सुनहली होतीं गेहूं की बालियाँ 

अब तो दीवारों पर टंगी केलेंडर 
और पुलिस की गस्त 
देती है इत्तिला त्योहारों की 
और हम स्मृति के केनवास पर 
अंकित उन छवियों को याद कर 
रस्म अदायगी के तौर पर 
हाथ में केमिकल गुलाल लिए 
एक दूजे को लगा कर 
कह लेते हैं "हेप्पी होली

~स-रोज़~

Thursday, February 20, 2014

"मन के फागुन से लाइव "

बसंत नाई सा 
छांट रहा है 
पेड़ों से ज़र्द पत्ते 
टेसू नाईन सी 
कुल्ल्हड़ में 
घोल रही है 
महावर 

आम के माथे 
बंध चूका है मऊर 
गेंदें ने दुआर पर 
सजा दी है, रंगोली 
बेला-चमेली ने 
इत्रदानों से 
छिड़क दिया है सुगंध 

कोयल,पपीहे गा रहे है 
स्वागत में
मधुर गान 
बंसवारी में 
पवन मुग्ध मगन 
छेड़ चूका है 
बांसुरी की तान 

फाग के इस राग़ में 
मन का ढोल-मजीरा 
जोह रहा हैं 
उस जोगी को 
जो गायेगा 
अबके फागुन 

"अहो जोगिनिया अईली हम छोड़ के सहरिया के नवकरिया तोहरे कारन"
जोगीरा सा रा रा रा रा !!!!

~स-रोज़~

डायन (कहानी)


तीन भाइयों के बाद तेतरी (तीसरी) कन्या का जन्म हुआ इसलिए उसका नाम भी तेतरी ही पड़ गया कहते हैं तेतरी लड़की बड़ी सुभागी होती है । उसके पैदा होने की बड़ी ख़ुशी मनाई गयी  मां बाप व भाइयों का दुलार तो खूब मिला किन्तु ककहरा(वर्णमाला) और देवी गीत सीखने तक की शिक्षा पर्याप्त समझी गई उसके लिए गाँव की अन्य लड़कियों के समान 

 

घर में बरक़त, सुख-शांति में काफी बढ़ोतरी हुई  उसके रूप व गुण के मुताबिक़ योग्य लड़के से उसका धूम-धाम से विवाह संपन्न हुआ जो शहर में सरकारी चपरासी था ।

 

ससुराल में पहला डेग डालते ही नाउन ने दुल्हन का चेहरा देख ख़ुशी से इतराते हुये एलान किया "अरे दुल्हिन तो इन्नर परी है खूब सुन्दर" । पूरे गाँव में उसके रूप व गुण का बखान होने लगा । अब जो भी दुल्हन गाँव में उतरती उसकी तुलना तेतरी से होती । किन्तु तेतरी अपने झांपी-झोरा के साथ अपना सुभाग लाना भूल गयी थी शायद ।

 

कुछ दिन बड़े सुन्दर व चैन के बीते उसके बाद उसके पति को शहर अपनी नौकरी पर लौटना पड़ा 

जाते-जाते कह गया कि 'अबकी बार छुट्टी पर आऊंगा तो तुम्हे साथ ले चलूँगा" । इसी सपने की आस लिए वह विधुर ससुर, जेठ और जेठानी की सेवा में जुट गई । दिन कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता ।

 अब उसके गर्भ में प्रेम का अंकुर पनपने लगा था, उसके सपने और सुनहले होने लेगे थे । शहर से तेतरी के नाम जो मनीआर्डर व पाती आती ससुर व जेठ दुआर पर ही छेंक लेते कभी वो तेतरी के हाथ नहीं आ पाता । 

दिनभर की मेहनत और पौष्टिक आहार की कमी से पेट में पनपता अंकुर सूख गया । इस दू:ख़ से उबर पाती तब तक एक पाती उसके हाथ पकड़ाया गया जिसकी लिखावट ने तेतरी के माथे पर दक-दक करते सिन्दूर को पोंछ डाला।  सिन्दूर भरा सिन्होरा (सिंदूरदान)आले पर धर दिया गया कभी न खुल पाने के लिए  

 

घर के हालात अब पहले जैसे नहीं रहे पति का पेंशन पोस्टमास्टर कुछ पैसे के लालच में जेठ या ससुर को धरा देता  सारे दिन बदन तोड़ मेहनत से थकी हारी और जेठ, ससुर की भेदती निगाहों से बचती-बचाती जब रात को सोने जाती तो भी मंडराती परछाइयाँ रातों की नींद उड़ा देती । हर वक़्त डरी सहमी सी रहने लगी थी वो 

सर्वगुण संपन्न सुभागी दुल्हिन अब अपशकुनी, करझौंसी ,कोख उजाड़न,पेट न भरा तो भतार खा गई जैसे जुमलों से नवाज़ी जाने लगी । जेठानी के पूरे दिन चल रहे थे तेतरी को उसके सामने भी जाने की मनाही थी 

 एक दिन पट्टीदारी में किसी की शादी थी, घर के सभी जन तिलक समारोह में दुसरे दुआर गए हुए थे  तेतरी बड़ी खुश थी कि आज कोई काम नहीं चैन की नींद सोएगी । यही सोच वो जैसे ही कोठरी का दरवाज़ा बंद करने लगी तभी पीछे से किसी ने उसका मुंह दबा दिया ,तेतरी इसके लिए तैयार न थी अतः उससे छुड़ाने की कोशिश में उसके हाथ में आले पर धरा सिन्होरा आ गया उसने उसे ही उसके सर पर दे मारा ,हडबड़ा कर उसने उसको छोड़ दिया तेतरी घबरा कर जोर-जोर से चिल्लाने लगी आवाज़ सुनकर घर के व सारे रिश्तेदार दौड़े आये ,वहां का नज़ारा देख सब स्तब्ध रह गए । जमीन पर चारो तरफ सिन्दूर बिखरा पड़ा था ,तेतरी एक तरफ थर-थर काँप रही थी और दुसरे तरफ जेठ के माथे से खून बह रहा था । लोगों की भीड़ देख जेठ पैंतरा बदलते हुए गुस्से में कहने लगा,

"अरे ये पक्की डायन है देखिये आपलोग सिन्दूर से ओझा-गुनी कर रही थी ।अपना कोख़ तो भक्ष गई अब मेरी पत्नी का कोख़ उजाड़ने का प्रयास कर रही है " अच्छा हुआ आप लोग आ गए वरना ये मुझे भी मार डालती "। इतना सुनने भर की देर थी कि, सभी लोग तेतरी को मारने और भागने पर तुल गए ।

 

तेतरी अब डायन बन चुकी है । अब गाँव के छोर पर मुसहर टोली के दक्खिन ओर जो बगिया है आजकाल वहां एक कुटिया दिखती है जहाँ रोज़ मुहं अँधेरे दुआर पर सिन्दूर टीका हुआ दिख जाता है । लोगों का उस तरफ से आना-जाना  बंद हैं । खास कर बच्चों को वहां जाने की सख्त मनाही है ।

'डायन घर' नाम पड़ा है उस कुटिया का । कोई कहता है वो लोगों का खून पीती है ,कोई कहता है वो उलटे पैर चलती है ।

मगर इन सब से बेख़बर तेतरी बहुत खुश है डायन बनकर , अब उसे दिन को आराम और रात को चैन की नींद आती है । पोस्टमास्टर भी टोना टोटका के भय से अब पेंसन "डाइन घर" दे आता है  

सिन्होरा हाथ में लिए तेतरी कहती है "ये सिंदूर मांग में रहकर रक्षा नहीं कर पाई तो क्या दुआर पर रहकर तो रक्षा कर रही है "?

  सरोज सिंह (s-roz~)

Tuesday, February 18, 2014

तक़लीफ़ की सिलवटें

तक़लीफ़ की सिलवटें 
वक़्त की इस्त्री 
मिटा तो देती है, 
मगर..... कम्बख़त 
वक़्त बहुत लेती है 

आपके अपने 
इसे दूर करना चाहते हैं 
पर अपनी तकलीफ़ 
निहायत अपनी होती है 

ऐसे में ख्याल यही कहता है के 

अपनों से भरी दुनिया में 
आपका का 
अपने सिवा 
अपना कोई नहीं होता !

~स-रोज़~

Thursday, February 13, 2014

"यकीन "

ज़मीं इक अंधा कुआँ है 
और चाँद 
उसका संकरा मुहाना 
रौशनी की मुन्तजिर 
सभी की नज़रें हैं ऊपर 
कोई है जो अपने हाथों से 
ज़मीं खोद रहा है 
उसे यकीं है 
रौशनी यहीं से निकलेगी 
यकीनन निकलेगी

ज़मीं अपने गर्भ में 
अज़ल से है आग छुपाये !!!

~s-roz~

Monday, February 3, 2014

"अल्फाज़ का इक पुल "

हमारे दरमियाँ 
लम्हा दर लम्हा 
अल्फाज़ का 
इक पुल सा 
बना जाता है 
मैं इस छोर पर
किस ओर हूँ 
नहीं जानती 
मेरे लिए तो 
रोज़ अलसुबह
"सूरज"..... 
पुल के उस छोर से ही 
निकलता है !

Friday, January 31, 2014

"सरहद "

आँखों ने ज़मीं के कैनवास पर 
सागर का नीलापन देखा 
परबत का 
सब्ज़,कत्थई,भूरा होना देखा 
नदियों की पारदर्शिता देखी 
मैदानों में हरियाली दिखी 
खुशरंग फूलों की घाटियाँ देखीं 

मगर सरहद की कंटीली बाड़ों से 
हवा के बदन पर 
मुसलसल उभरती ख़राशों से 
लहू टपकते देखा है 
तभी तो ........
वहां की सुनहरी ज़मीं
लाल दिखाई पड़ती है
!
~s-roz~

Saturday, January 25, 2014

"उसे मारो "

चाहते हो गर 
सियासत की सांस 
बदस्तूर चलती रहे
तो उसे मारो 
तल्ख़ अल्फाजों से 
उसे लानत भेजो 
उसपर जुमले कसो 
उसकी कमर तोड़ो 
उसकी रीढ़ तोड़ो 
ताकि वो
सदा के लिए
मुख़ालिफ़ हवाओं में
तनकर खड़ा होना
और सर बुलंद किए
चलते रहना
भूल जाए 
गर वो कुछ दिन और 
तन कर सीधा चला 
तो बरसो का खड़ा किया 
सियासी महल 
नेस्तनाबूद हो सकता है !
!
~s-roz~
गोया हम कोई काम भला तो करते नहीं और जो कोई करने की ठाने भी तो उसकी खैर-ओ ख्वाह में कोई कसर भी नहीं छोड़ते ...है की नहीं ?:)

Friday, January 24, 2014

नज़्म

तुम्हे धूप-धूप समेट लूं 
तुम्हे छांव-छांव गुमेट लूँ 
तुम्हे रंग-रंग निखार दूं 
तुम्हे हर्फ़-हर्फ संवार दूँ 
फ़िलवक्त आई मौत भी तो 
कह दूंगी उसे इस रुआब से 
जा मुल्तवी हो इस दयार से 
अभी करने है मुझे काम कई 

Thursday, January 23, 2014

"तनहाई"(नज्म)

शाम बारिशों में
तो रात बूंदों में
किसी तूल कट ही गयी 
आज फिर सहर ने 
कोहरे की लिहाफ से 
ज़बरन दिन को जगाया है 
गूंगे दिन ने फिर 
भीड़ में ..........
तनहाई दोहराई है !

~s-roz~

Tuesday, January 21, 2014

"रसद ज़िन्दगी की"

चूल्हा .....
रोज़ जलता है 
बुझ जाता है 
भूख बढ़ती है 
घटती है ....
फिर बढ़ जाती है 
रसद ज़िन्दगी की मगर 
चुकती जाती है !

~s-roz~